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My K12 Story, Journey So Far : Mrs Reema Kohli, An Eduleader, Principal & Educationist

SHARING AN INSPIRING AND EVENTFUL JOURNEY OF MRS. REEMA KOHLI, - A PASSIONATE EDUCATIONIST, EDULEADER AND SCHOOL PRINCIPAL.



स्कूल का आखरी साल

नन्ही सी किलकारी ने जब जन्म लिया

खुशियों का समां बाँध दिया

आँखें खोली तो देखा मैंने मेरी पहली गुरु , मेरी माँ का चेहरा

साल, महीने बीते

बीते रातें और दिन

माता पिता की आज्ञा

स्कूल में दाखिला करा दिया

आज भी याद हैं मुझे , स्कूल के पहले दिन भी थे आँखों में आंसू

और आखरी दिन भी आँखें नम थी

यह 12 साल का सफर कैसे निकल गया

कुछ बाते सीखी और कुछ खुद आ गयी

चलो आज यादों की किताबें खोले

12वी के साल को फिर जीएं और धौहरायें


Mrs. Reema Kohli

Principal & Educationist


पहली कक्षा में दाखिला लेते बच्चे को, अक्सर माँ- बाप कहते हैं आज तुम स्कूल जाओगे और देखो तुम्हें स्कूल से डॉक्टर बनकर निकलना है तुम्हें स्कूल में जाकर इंजीनियर बनना है और बहुत-बहुत नाम कमाना है I उस छोटेसेबच्चेकेमनमेंस्कूलकाएकचित्रजोएककोनेमेंलगेकुछझूलोंकेसिवाअपनेदोस्तोंकेसाथहल्कीफुल्कीबातोंमेंवहछोटी-छोटीचीजोंकोबांटना, टिफिनखाना या उस से हटकर कुछ शब्दों का उच्चारणऔर कुछ शब्दों को लिखित रूप में सीख नाही पहली कक्षा का उद्देश्य होता हैं ।


समय बीत ते जब मैंने अपना आप संभाला, समय बीत ते यह ख़्वाबों की दुनिया अलग उड़ान भरने लगी I मैंनेभीकुछऐसासफरअपनीस्कूलीजिंदगीमेंकांटा I


कक्षा 5 वीं के बाद जैसे ही छठी में कदम रखा तो सीनियर विंग में जाने से यह एहसास हुआ कि सेनोरिटी का लाइफ में क्या मतलब होता है I अक्सर जब हाउस मीटिंग होती थी तो कक्षा ग्यारहवीं - बाहरवीं के बच्चों को ही रेस्पॉन्सिबिलिटीज़ दी जाती थी, तो लगता था हम कब कक्षा ग्यारहवीं में होंगे, हम कब कक्षा बाहरवीं में होंगे? अपने सफर के हर उस दिन कक्षा बारहवीं के सामने से निकलके सोचते थे कलको हम भी हेड बॉय होंगे, हम भी हेड गर्ल होंगे - सीनियर होंगे ।


पर यह तो कभी सोचा ही नहीं था की इस हेड बॉय , हेड गर्ल या इस सेनोरिटी या इस विंग में आने का मतलब सिर्फ स्कूल के सबसे आगे वाली पंक्ति में खड़ा होना नहीं हैं या स्कूल श्रेणी में सबसे सीनियर बच्चों की लिस्ट में आना नहीं जो असेंबली में ड्यूटीस देते हैं और छोटे बच्चों को टीचर्स की तरह समझाते हैं I


जैसे ही कक्षा 10 वी पासकी, तो अपनी ख़्वाबों की दुनिया - डांस, म्यूजिक, आर्ट सोशल साइंस को छोड़ के यह डॉक्टर - इंजीनियर की दुनिया में कदम रख दिया I


साइंस- समझ आती थी, पढ़ने की इच्छा होती थी पर समझकरअप्लाई करने की कभी मन से इच्छा नहीं हुई थी। फिर भी डॉक्टर - इंजीनियर बनने के लिए साइंस तो पढ़नी थी। अपनी हर मुमकिन कोशिश के साथ यह सफर शुरू किया ।


चंडीगढ़ की कड़कती ठंड,

सुबह सुबह स्कूल में एक्स्ट्रा क्लासेस की जंग

अक्सर नवंबर केमहीनेसे मैथ्स, फिजिक्स, केमिस्ट्री की लग जाती थी होड़

हम सबको बोल दिया जाता था एक्स्ट्रा क्लासेस का नहीं है तोड़

आना तो तुमको होगा भले कैसे भी आओ

ट्यूशन का जमाना नहीं है यहां पर स्कूल में ही पढ़ने आओ

ठिठुरते - ठिठुरते अंधेरे में

ठिठुरते ठिठुरते सर्दी के अंधेरे में

वह रिक्शावाले का बाहरआकर घंटी बजाना

जल्दी-जल्दी गरम गरम दूध की चुस्की भरकर रिक्शा में बैठ जाना

हाथों में ग्लव्स डालकर और मुँह से गर्म हवाओं के धुए निकालना

और अपनी जिंदगी के इंजन को आगे बढ़ाने के लिए चल देना

सुबह-सुबह ठंड में स्कूल पहुंचकर पहले यह देखना कितने सपाठी आए हैं और कितने नहीं आए

अगर दोस्त को ना पाते तो अक्सर खुद को कोसते,आज की क्लास तो मैं भी मिस कर लेती

मुझे बताया ही नहीं बताते कैसे सेलफोन कहां था

स्कूल शुरू होता था 8:30 बजे, हम पहुंच जाते थे 7:00 बजे

एक घंटा एक्स्ट्रा क्लास के बाद जब सर कहते थे असेंबली टाइम भी लेंगे तो लगता थाऔरआधा घंटा

उस पर जब जीरो पीरियड में फिजिक्स टीचर के आने पर भी मैथ टीचर कहते थे जीरो पीरियड भी मैं ही ले लेता हूँ आप मेरी क्लास ले लो

तो लगता था कि बस अब यहीं पर दम घुटजाएगा

फिर भी कापते कापते हाँथों से ठंड में कोशिश करते थे

ज्यादा से ज्यादा सम सॉल्व करने की

आज तो बच्चों को हॉट वॉटर डिस्पेंसर मिलते हैं और हम अपनी थरमस में गर्म पानी लाते थे

वह भी संभाल नहीं होती थी - अंदर से कांच की जो होती थी

स्टील की फ्लास्क का ज़माना नहीं था

अगर गिर गई, टूट गई तो दूसरी इतनी जल्दी मिलेगी भी नहीं

उस जमाने मेंमाता-पिता बहुत ही ज़्यादा बच्चों को वस्तुओं की अहमियत रखने की सीख देते थे

अपनी वस्तुओं को संभालने की एक शिक्षा परिक्रिया में

ठिठुरते हांथो में , फ्लास्क पकड़ते हुए यह भी डर रहता था

जैसे ही दो ढाई घंटे की कड़क मेहनत के बाद

मैथ्स के सुम्स के घुमाव के बाद , ब्रेक टाइम मिलता था

तो जल्दी से जाकर अपने कैंटीन से 25 पैसे में समोसा खाते थे

घर से 1 रुपया लाते थे 25 पैसे का समोसा खाते थे और 25 पैसे का ब्रेड रोल

कैंटीन में भी अम्माजी होती थी और उनको पता होता था

की अब क्लास 12 के बच्चे छूटेंगे तोह किसको क्या चाहिए

उनको नाम से हम सबके नाम याद होते थे

और वह हमारे - हमारे हिसाब से समोसे, ब्रेड पकोड़े , क्रीम रोल और टिक्की चाट निकालके रखते थे

50 पैसे से 75 पैसे में हमारा टिफिन हो जाता था

25 पैसे हम अगले दिन के लिए संभाल लेते थे

और जब 25- 25 पैसे 10 दिन के बच जाते थे

तो हम सब मिलकर पार्टी करते थे

ऐसे भी वह मेरे स्कूल के दिन थे ।





हर अध्यापक ने बार-बार यही समझाया- ‘आखिरी साल है , पढ़ लोगे तो आने वाले समय में कुछ खुद हासिल कर पाओगे, अपना एक अस्तित्व बना पाओगे I हर समय एक ही भय लगा रहता पिछले 12 साल की पढ़ाई के ज्ञान को किस तरह से यह चन्न पन्नों पर उतारे जो की 12वीं कक्षा के वार्षिक परीक्षा का नतीजा होगा


अक्सर सोचती थी मैं - क्या इस नतीजे में उत्तीर्ण ना होने से ज़िन्दगी रुक जाएगी ? पर यह सोचने का भी तो समय नहीं था I हर पल यही समझाया जाता था, ‘की यही हैं वह साल जो तुम्हारी जिंदगी बदलेगा , जो तुम्हें आगे रास्ता दिखाएगा, की यही हैं वह साल जो तुम्हें रोशनी की ओर ले जाएगा’ I


तुम सीनियर हो, तुम अपने संग अपने जूनियरस को इंस्पिरेशन देकर जाओगे I हमारे अध्यापक - अध्यापिकाएं भी बहुत ही पेशेंट, महंती और बच्चों को प्यार करने वाले होते थे I


मुझे आज भी याद है उषा किरण मैडम , नागपाल मैडम और सहगल सर , अक्सर पढ़ाते -पढ़ाते एक या दो बार कह जाते - साइंस पढ़ रहे हो बेटा, पर तुम्हे मैं पांची कक्षा से जानती हूँ । तुम में और भी बहुत से गुण विद्यमान हैं, हो सके तो उनको कभी दबने ना देना I


मुझे याद है फिजिक्स का एग्जाम लिखते हुए जब मेरी साइंस मैडम ने आकर मुझसे कहा , मेरे फिजिक्स सर ने आकर मुझसे कहा ‘कैसा हुआ पेपर ? मैंने कहा अच्छा हुआ सर’ - बोले इसके बाद जरूरी नहीं है इंजीनियरिंग करना , चाहो तो होनोर्स कर लेना कुछ समय मिल जाएगा तुम्हें अपने दूसरे शौक पूरे करने के लिए I


पर कहां जिंदगी उस ओर लेकर जाती है अक्सर एक मुकाम ऐसा आता है जब तुम्हें खुद की समझ नहीं आती है I चारों तरफ से इतना प्रेशर होता है की एहसास ही नहीं रहता किआखरी साल है स्कूल का या शुरुआत है नयी जिंदगी की I


इस आखिरी और शुरुआत की बात को करते-करते एक ऐसी लंबी गहरी सुरंग बन जाती है जिसमें कभी कभी हम चले तो जाते हैं पर निकलना मुश्किल हो जाते हैं I ऐसा ही कुछ एहसास मुझे अपनी बारहवीं कक्षा में हुआ । इसके भंवर में मेरे शौक, मेरी काबिलियत, मेरा हुनर,पढ़ाई, मेरे गुण , पेरेंट्स का प्रेशर , टीचर्स की सीख १२ साल का सफर और आने वाला सफर एक तूफ़ान की तरह घूमता ही रहता था और इस झलझलाहट में ना जाने कब , कितने उतार - चढ़ाव के बाद केमिस्ट्री के फार्मूले याद कर कर, केमिकल इक्वेशंस को बैलेंस कर कर अपनी लाइफ को बैलेंस करने की चेष्टा की I फिजिक्स के हर मेजरमेंट में हर प्रॉब्लम सॉल्विंग में ऐसे लगता था कि जिंदगी की मापतोल को हमने भली भाँती समझ लिया I


मैं बात करने लगी हूं 1986 की - 1986 में ना तो फ़ोन होते थे नाही नेट होता था सिर्फ कंप्यूटर के बारे में सुना थाऔरकंप्यूटर सेंटर होते थे, जिसमें सबकाआना-जाना था पर सबको उसके बारे में इतना ज्ञान नहीं था I


यह सफर किताबों से लिखा जाता था , कलम से छापा जाता था I दोस्तों से नोट्स लेकर चोरी छुपे अपने नोट्स बनाकर बहुत कम दोस्तों से शेयर किया जाता था I अक्सर टीचर्स भी कह देते थे अपने नोट्स किसी से शेयर मत करना I


पर आज हम नेट पर शेयर करते हैं क्वेश्चनपेपर्स आज हमारे सबको दिखाए जाते हैं I तब गलती होती थी तो पेपर छुपा लिया जाता था यह सोचकर कि क्या कहेंगे यह भी नहींआता I कितना बदल गया है समय , अपनी गलती को बताने में यह एहसास होता है कि हमने जो किया वे और ना करेI तो क्यों न किसी की मदद कर दे ?


सफर बदल गया है, अब सफरअभिभावकों और टीचर्स का नहीं रहा - अभिभावकों और शिक्षकों का नहीं रहाI हमारा सफर कक्षा बारहवीं में एक अद्भुत सा था, जब कक्षा बारहवीं का ट्रिप जाना था - एक्सकर्सन की बात हो रही थी तो ना जाने हम सब कितने ही स्थानों के नाम सोचने लगते थे । सभी सहपाठी बैठकर 100 से भी अधिक जगाहों पर जाने के लिए एक लम्बी लिस्ट बनाकर टीचर्स को दे देते थे ।और टीचर्स का कहना होता था , कक्षा बारहवीं हैं - पढ़ने के दिन हैं , 3-4 दिन के ट्रिप पर जाओगे ? इतना थक जाओगे , आके 2 दिन और नहीं पढ़ पाओगे । कितनी हानि होगी I खुशी के लम्हों को भी हानि और लाभ में तोला जाता था I


जब एक्सकर्सन की फाइनल लिस्ट बनती थी तो 300 में से चुनिंदा 100-150 बच्चा रह जाता था । अक्सर उसमें भी सिर्फ 15% छात्राएं होती थी और 85% छात्र क्योंकि छात्राओं को भेजना अभिभावक उतना सेफ नहीं समझते थे I उनमें से एक मैं भी थी । सेफ्टी ज़रूरी हैं , अकेले जाओगे , कहा रहोगे ? कैसे संभालोगे ? यह माँ - बाप के प्रश्न जो चिंता से भरे होते थे अक्सर खुद को यह मांनने पर मजबूर कर देते थे की अभी हम फैसला लेने के योग्य नहीं हैं । इसीलिए कक्षा बारहवीं में अक्सर बच्चे उस समय में ज़िन्दगी के वह फैसले नहीं ले पाते थे जो अगर सही समय पर ले लिए जाए तो सफलता का पड़ाव लम्बी दूरी तय करने के लिए किसी को मजबूर ना करे ।


कक्षा बारहवीं का फेयरवेल का महीना , संग उसके प्रैक्टिकल्स का भार । कब प्रैक्टिकल फाइल बनाएंगे ? कब ड्राइंग बनाएंगे ? कब प्रोजेक्ट बनाएंगे ? कब असाइनमेंट बनाएंगे ? यह सोचते सोचते अपने सहपाठियों से कहते थे तुम अपनी एक फाइल कम्पलीट करोगी तो मुझे दे देना , मैं अपने एक कम्पलीट करके तुम्हे दे दूंगी - मतलब तुम फिजिक्स की फाइल बना लेना मैं बायो की बना लुंगी । तुम्हारी कॅल्क्युलेशन्स अच्छी हैं और में ड्राइंग अच्छी हैं -न ऐसा ही कहकर हम आपस में फिजिक्स, केमिस्ट्री और बायो की फाइल्स की रिस्पांसिबिलिटी बाँट लेते थे और फिर मिलकर उसको उतार लेते थे ।


इसी के बीच फेयरवेल में क्या पहनना हैं ? सबसे अच्छा दिखन हैं और साथ के साथ साड़ी ज़िन्दगी जो हमारे संग रहेगा उस पल को कैसे संजोना हैं ? बहुत हिचकिचाते थे हम यूनिफार्म से निकलकर, स्कूल में किसी और ड्रेस में आना ।बचपन से स्कूल में यूनिफार्म के सिवा किसी और ड्रेस में आने की ना तो अनुमति थी ना ही घर से इजाज़त थी । संकोच था पर एक एहसास था की अब हम स्कूल की चार दीवारी से निकलकर जब दूसरी ज़िन्दगी का सामना करेंगे तो हमे स्कूल की वर्दी को कही ना कही आज यही छोड़कर आगे बढ़ना होगा । आज हमारे कंधो पर स्कूल की वर्दी के साथ हमारे शिक्षकों का भी हाथ हल्का हो जाएगा ।


यह सफर इतना आसान नहीं हैं जैसे ही हम फेयरवेल वाले दिन एक अलग , सूंदर नौर मनचाही पोशाक में पाठशाला के भीतर कदम रखते हैं तो ना जाने ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने एक बचपन की आत्मा हमारे शरीर से चीन ली । ऐसा प्रतीत हुआ की जिन क़दमों पर हर पल सौ कदम संग चलते थे , आज वह कदम दो कदम आगे बढ़ गए ।


कहने को कक्षा बारहवीं का छात्र सीनियर होता हैं , पर मुझे लगता हैं जो कक्षा बारहवीं का छात्र होता हैं वह एक तपोवन में होता हैं जिसमें उसको अपने जीवन की १२ की तपस्या , आंधी, तूफ़ान और हर तरह के उतार - चढ़ाव को सहन कर अपने स्थान पर डटे रहना होता हैं । यह वह समाधी हैं जिसमें तुम्हे सिर्फ खुदको नहीं , अपने संग हर उस व्यक्ति को भी परिपूर्ण रूप से यह विश्वास दिलाना होता हैं की इस तपस्या या तपोवन से जब मई कदम बहार रखूँगा ताज़ारों लोगों को शिक्षा दे पाऊंगा और खुदकी जीविका कमा पाऊंगा ।


अब समझ आता हैं की कक्षा बारहवीं का अर्थ सिर्फ शब्दों , विषय और ज्ञान नहीं .. इन दोस्तों का साथ और उसके संग यह खूब सारा ज्ञान जीवन में हमे कभी भी विषफल नहीं रख सकता । हम अपनी मर्यादा में जब भी आगे बढ़ेंगे तो हमेशा सफलता ही पाएंगे ।


आज भी उन सोच समझ के पढ़े हुए शब्दों के भली भाँती अपने जीवन में प्रयोग कर पा रही हूँ।भले टोपर की लिस्ट में ना आयी हूँ पर यह समझ गयी हूँ की कभी भी परीक्षा के डर से नहीं पढ़ना चाहिए।कक्षा कोई भी हो , विषय कोई भी हो ..परीक्षा देकर सीखने के उद्देश्य से पढ़ना चाहिए।


Mrs. Reema Kohli

Principal & Educationist




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